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छत्तीसगढ़ में अपर कलेक्टर पदों पर घोटाला, 46 स्वीकृत पदों पर 80 अफसर कार्यरत, हर माह 30 लाख की लूट, जाने क्या है पूरा मामला…

कोरबा।छत्तीसगढ़ के प्रशासनिक ढांचे में एक ऐसा घोटाला उजागर हुआ है, जिसने शासन और नौकरशाही दोनों की नीयत पर गहरे सवाल खड़े कर दिए हैं।

मामला क्या है?

प्रदेश के 33 जिलों के लिए शासन ने सिर्फ 46 अपर कलेक्टर पद स्वीकृत किए हैं। लेकिन हकीकत यह है कि जिलों में 80 अफसर अपर कलेक्टर की कुर्सी पर बैठकर काम कर रहे हैं।
यानी 34 पद पूरी तरह ग़ैरक़ानूनी तरीके से बढ़ाए गए और इन अतिरिक्त अफसरों को हर माह जनता के टैक्स से मोटी तनख्वाह दी जा रही है।

वित्तीय घोटाला कैसे बन रहा है?

एक अपर कलेक्टर को 50,000 से 1 लाख रुपये तक का वेतन दिया जाता है।
स्वीकृत पदों से अधिक अफसरों की तैनाती के कारण शासन पर हर माह लगभग 30 लाख रुपये का अतिरिक्त बोझ पड़ रहा है।
सालभर में यह राशि 3.5 करोड़ रुपये से ज्यादा की गड़बड़ी बन जाती है।

किन जिलों में सबसे ज्यादा गड़बड़ी?

पड़ताल में सामने आया कि कई जिलों में स्वीकृत पद से कई गुना अधिक अफसर अपर कलेक्टर के रूप में काम कर रहे हैं –

बलरामपुर – 1 स्वीकृत, 5 कार्यरत
कोरिया – 1 स्वीकृत, 3 कार्यरत
दुर्ग – 2 स्वीकृत, 4 कार्यरत
केशकाल – 1 स्वीकृत, 3 कार्यरत
बेमेतरा – 1 स्वीकृत, 4 कार्यरत
बालोद – 1 स्वीकृत, 3 कार्यरत
रायपुर – 2 स्वीकृत, 5 कार्यरत
धमतरी – 1 स्वीकृत, 3 कार्यरत
बालोदाबाजार – 2 स्वीकृत, 4 कार्यरत
गरियाबंद – 1 स्वीकृत, 2 कार्यरत
बिलासपुर – 2 स्वीकृत, 3 कार्यरत
मनेंद्रगढ़-चिरमिरी-भरतपुर – 1 स्वीकृत, 3 कार्यरत
मोहला-मानपुर – 1 स्वीकृत, 2 कार्यरत
(अन्य जिलों का भी यही हाल है)

यह तालिका बताती है कि यह कोई “चूक” नहीं बल्कि एक सिस्टमेटिक सेटअप है।

संविदा अफसरों का खेल

सबसे चौंकाने वाली बात यह है कि संविदा पर रखे गए अफसरों को भी अपर कलेक्टर का प्रभार सौंप दिया गया है।

विरोध, लेकिन कार्रवाई नहीं

छत्तीसगढ़ प्रशासनिक सेवा संघ ने शासन को पत्र लिखकर इस गड़बड़ी पर आपत्ति जताई। लेकिन अब तक न तो शासन ने अतिरिक्त अफसरों को हटाया और न ही जिम्मेदारों पर कोई कार्रवाई की।

सबसे बड़े सवाल

46 पद स्वीकृत होने के बावजूद 80 अफसरों को नियुक्त करने का आदेश किसने दिया?
30 लाख रुपये प्रतिमाह के अतिरिक्त खर्च की जवाबदेही कौन लेगा?
संविदा अफसरों को नियमविरुद्ध अपर कलेक्टर का प्रभार क्यों सौंपा गया?
क्या यह घोटाला राजनीतिक संरक्षण में चल रहा है?

इस पूरे मामले से साफ है कि प्रदेश में नौकरशाही और राजनीति की मिलीभगत से ‘अपर कलेक्टर घोटाला’ चल रहा है, जिसमें जनता का पैसा अफसरों की जेब में जा रहा है।

छत्तीसगढ़ में अपर कलेक्टर पदों का घोटाला सिर्फ़ नियम उल्लंघन और वित्तीय बोझ का मामला नहीं है। इसका सीधा असर हज़ारों छोटे कर्मचारियों पर पड़ा है।

छोटे कर्मचारियों की अनदेखी

सचिवालय और ज़िलास्तर पर काम करने वाले लिपिक, सहायक, राजस्व कर्मचारी और अन्य छोटे स्टाफ़ सालों से वेतनवृद्धि और पदोन्नति का इंतज़ार कर रहे हैं।
कई विभागों में कर्मचारी संघ लगातार मांग कर रहे हैं कि उन्हें 7वाँ और 8वाँ वेतनमान लागू किया जाए या समयमान वेतनमान दिया जाए, लेकिन शासन का तर्क है – “वित्तीय भार ज़्यादा है।”
वहीं दूसरी तरफ़ शासन उन्हीं पैसों से ग़ैरक़ानूनी तरीके से 34 अतिरिक्त अपर कलेक्टरों को वेतन बांट रहा है।

जब छोटे कर्मचारी वेतनवृद्धि के लिए तरस रहे हैं तो अफसरों पर करोड़ों क्यों लुटाए जा रहे हैं?
क्या शासन की प्राथमिकता अफसरों को खुश करना है या ज़मीनी कर्मचारियों और जनता को राहत देना?
क्या इस घोटाले की जाँच होने पर जिम्मेदार अफसरों और नेताओं पर कार्रवाई होगी या मामला फिर दबा दिया जाएगा?

नतीजा

छोटे कर्मचारी महँगाई से जूझते हुए पुरानी तनख्वाह पर काम करने को मजबूर हैं।
जिलों में अतिरिक्त अपर कलेक्टर बैठाकर दोहरे आदेश और भ्रम की स्थिति बनी हुई है।
जनता के टैक्स का पैसा विकास कार्यों या कर्मचारियों के हक़ में जाने के बजाय “अफसरशाही की मलाई” पर खर्च हो रहा है।

साफ है कि यह घोटाला सिर्फ़ “अपर कलेक्टरों की भरमार” तक सीमित नहीं है, बल्कि इसका खामियाज़ा छोटे कर्मचारियों और आम जनता को भुगतना पड़ रहा है।

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