रायगढ़साहित्य

सब ताज उछाले जाएंगे, सब तख्त गिराए जाएंगे…

“जिस दिन सर्वहारा को अपनी ताकत का एहसास हो जाएगा उस दिन वे दुनिया को बदलकर रख देंगे.”

तानाशाही और जुल्म के दौर में लोकतंत्र का शायर – ‘फैज़ अहमद फ़ैज़ ’

फैज़ क्रांति और प्रेम में अगाध विश्वास रखने वाले इंसानियत के शायर थे। फैज़ सिर्फ शायरी में ही क्रांति की बात करने वाले शायर नहीं थे.बल्कि हकीकत जीवन में भी तानाशाह या जुल्मी शासक के खिलाफ इंसानियत और प्रेम को जीने के लिए बेखौफ मुकाबला करने वाले सच्चे इंसान व खुलेआम बगावती तेवरों के साथ शायरी करने वाले क्रांतिकारी शायर थे।

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ भारतीय उपमहाद्वीप ही नहीं पूरी दुनिया के सुविख्यात पंजाबी शायर थे, जिन्हें अपनी क्रांतिकारी और इश्क रचनाओं (इंक़लाबी और रूमानी) के मेल की वजह से जाना जाता है। सेना, जेल तथा निर्वासन में जीवन व्यतीत करने वाले फ़ैज़ ने कई नज़्में और ग़ज़लें लिखी तथा उर्दू शायरी में आधुनिक प्रगतिवादी दौर की रचनाओं को सबल किया। उन्होंने पाकिस्तान की सरकार के खिलाफ खुलेआम बगावत भी की. इसका खामियाजा कभी उन्हें जेल जाकर तो कभी देश निकाला द्वारा सहना पड़ा. लेकिन क्रांति में और जनता में उनका भरोसा कभी भी कम नहीं हुआ.फैज ऐसे शायर थे, जो लिखते थे, जेल में डाल दिए जाते थे। फिर लिखते थे, फिर जेल में डाल दिए जाते थे। वे फिर जेल में ही लिखते थे। आज भी सत्ता तानाशाही विकसित करती है, फैज के दौर में भी ऐसा होता था। भारत में भी आजादी की आमद के वक्त लोगों को उसका चेहरा नजर ही नहीं आ रहा था, कहीं लोग एक-दूसरे की जान के दुश्मन थे, तो कहीं आवाजों का दम घोंटा जा रहा था। फैज ने इसे शिद्दत से महसूस किया, भारत-पाकिस्तान विभाजन से मिलने वाली आजादी से फैज खुश नहीं थे. उन्होंने साफ-साफ लिखा और उनकी कलम बोल उठी –

ये दाग़ दाग़-उजाला, ये शब-गज़ीदा सहर
वो इंतज़ार था जिसका, ये वो सहर तो नहीं

ये वो सहर तो नहीं जिसकी आरज़ू लेकर
चले थे यार कि मिल जाएगी कहीं न कहीं
फ़लक के दश्त में तारों की आख़िरी मंज़िल
कहीं तो होगा शब-ए-सुस्त मौज का साहिल

कहीं तो जाके रुकेगा सफ़ीना-ए-ग़मे-दिल

कुछ इसी तरह की बात उन्होंने ‘चंद रोज़ और मेरी जान फ़क़त चंद ही रोज़’ में भी कही है. इसी तरह ‘कुत्ते’ नामक अपनी नज्म में फैज़ ने सर्वहारा की ताकत के बारे में लिखा है. फैज़ का मानना है कि “जिस दिन सर्वहारा को अपनी ताकत का एहसास हो जाएगा उस दिन वे दुनिया को बदलकर रख देंगे.”

फैज को आमतौर पर लोग कम्यूनिस्ट कहते थे। उन्हें इस्लाम विरोधी भी कहा जाता था । फैज के किस्से भी बहुत हैं और हकीकत भी। फैज आजादी से पहले भी मकबूल थे और आजादी के बाद भी। फैज रोमांस की शिद्दत याद दिलाते थे, तो लोकतंत्र की मजबूती की भी।

फैज अहमद फैज सियालकोट के मशहूर बैरिस्टर सुल्तान मुहम्मद खां के घर पैदा हुए थे। पांच बहनें और चार भाई थे। वह सबसे छोटे थे, तो सबके दुलारे भी थे। परिवार बहुत ही धार्मिक किस्म का था। मदरसे भेजा गया कुरान पढ़ने, लेकिन दो सिपारे यानी दो अध्याय ही पढ़ पाए कि मन उचट गया। स्कूल में अव्वल आते रहे और शायरी करने लगे।

फैज़ बोलने की आजादी के हिमायती थे. क्रांति के लिए जागरण जरूरी है और बिना अपनी आवाज को बुलंद किए बगैर न किसी को जगाया जा सकता है और न ही कोई बदलाव किया जा सकता है.लोकतंत्र के लिए अभिव्यक्ति की आजादी बहुत आवश्यक है।तानाशाह और जुल्म को सिर्फ़ इंसानियत, प्रेम, भाईचारा, सद्भाव और बेखौफ आवाज से ही खत्म किया जा सकता है।फैज़ न सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप की जनता के दर्द को आवाज देते हैं बल्कि पूरी दुनिया की जनता के दर्द को भी अपनी शायरी में आवाज देते हैं. फैज़ इस मायने में एक ऐसे शायर हैं जो शोषित-पीड़ित जनता के पक्ष में खड़ी है.पढ़ें शायरी के कुछ अंश –
बोल, कि लब आजाद हैं तेरे
बोल, जबां अब तक है तेरी।
तेरा सुतवां जिस्म है तेरा

बोल, कि जां अब तक तेरी है।

अपनी हर नज्म से सोते हुए जमीरों को जगा देने वाले, इंकलाबी शायरी में उर्दू दुनिया के सबसे बड़े नामों में फैज अहमद फैज शामिल हैं। एक ऐसा शायर जिसका एक-एक शेर दबे-कुचलों की आवाज कई सालों से बना हुआ है। फैज ने अपनी गजलों और नज्मों के जरिए हमेशा हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और तमाम उर्दू बोलने वालों के दिलों में अपनी अलग जगह बनाई है।जेल के दौरान लिखी गई उनकी कविता ‘ज़िन्दान-नामा’ को बहुत पसंद किया गया था। उनके द्वारा लिखी गई कुछ पंक्तियाँ अब भारत-पाकिस्तान की आम-भाषा का हिस्सा बन चुकी हैं, जैसे कि ‘और भी ग़म हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा’।

बात 1985 की है। पाकिस्तन के सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने इस्लामीकरण की शुरुआत कर दी थी। पूरे पाकिस्तान में मार्शल लॉ लगा था। लोकतंत्र का गला घोंट दिया गया था। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर पहरे थे। आम लोगों की जिंदगी पर पाबंदियां थीं। महिलाएं साड़ी नहीं पहन सकती थीं। इस दमघोंटू माहौल में लाहौर का स्टेडियम एक शाम इंकलाब जिंदाबाद के नारों से गूंज उठा, लोकतंत्र और अपने अधिकारों के लिए जनता ने बगावत का ऐलान किया। और इस बगावत और इंकलाब को आवाज दी थी पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने। उन्होंने इस स्टेडियम में कम से कम 50 हजार लोगों की मौजूदगी में जो नज्म सुनाई, उसे सुनकर आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं।जिसे आप यूट्यूब में आज भी देख सुन सकते हैं।

यह नज्म थी:

हम देखेंगे….
लाज़िम है कि हम भी देखेंगे
वो दिन कि जिसका वादा है
जो लौह-ए-अज़ल में लिखा है
जब ज़ुल्म-ओ-सितम के कोह-ए-गरां
रुई की तरह उड़ जाएँगे
हम महक़ूमों के पाँव तले
ये धरती धड़-धड़ धड़केगी
और अहल-ए-हक़म के सर ऊपर
जब बिजली कड़-कड़ कड़केगी
जब अर्ज-ए-ख़ुदा के काबे से
सब बुत उठवाए जाएँगे
हम अहल-ए-सफ़ा, मरदूद-ए-हरम
मसनद पे बिठाए जाएँगे
सब ताज उछाले जाएँगे

सब तख़्त गिराए जाएँगे

यह फैज का इंकलाबी रूप है। लेकिन इस इंकलाबी शायर का एक रुमानियत से भरपूर रंग भी है।

पढ़ें यह ग़ज़ल:

गुलों में रंग भरे बाद-ए-नौबहार चले
चले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले

क़फ़स उदास है, यारो सबा से कुछ तो कहो
कहीं तो बहर-ए-ख़ुदा आज ज़िक्र-ए-यार चले

कभी तो सुब्ह तेरे कुंज-ए-लब से हो आग़ाज़
कभी तो शब सर-ए-काकुल से मुश्कबार चले

बड़ा है दर्द का रिश्ता, ये दिल ग़रीब सही
तुम्हारे नाम पे आयेंगे, ग़मगुसार चले

जो हम पे गुज़री सो गुज़री है शब-ए-हिज़्रां
हमारे अश्क़ तेरी आक़बत संवार चले

हुज़ूर-ए-यार हुई दफ़्तर-ए-जुनूं की तलब
गिरह में लेके गरेबां का तार-तार चले

मुक़ाम ‘फ़ैज़’ कोई राह में जंचा ही नहीं

जो कू-ए-यार से निकले तो सू-ए-दार चले।।

फैज़ का जन्म 13 फरवरी, 1911 को अविभाजित भारत के सियालकोट (अब पाकिस्तान) में हुआ था. फैज पहले सूफी संतों से प्रभावित थे. 1936 में वे सज्जाद जहीर और प्रेमचंद जैसे लेखकों के नेतृत्व में स्थापित प्रगतिशील लेखक संघ में शामिल हो गए. फैज़ इसके बाद एक प्रतिबद्ध मार्क्सवादी हो गए.फैज अहमद को दुनियाभर में फैज अहमद ‘फैज’ के नाम से पहचान मिली।

उन्हें साहित्य में नोबेल पुरस्कार के लिए नामांकन के साथ-साथ 1962 में सोवियत संघ से लेनिन शांति पुरस्कार मिला। उनका काम पाकिस्तान में प्रभावशाली रहता है। 1990 में जब पाकिस्तान सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक पुरस्कार निशान-ए-इम्तियाज से सम्मानित किया, तो उन्हें मरणोपरांत सम्मानित किया गया ।

सन् 1941में उन्होंने अपने छंदो का पहला संकलन नक़्श-ए-फ़रियादी नाम से प्रकाशित किया। एक अंग्रेज़ समाजवादी महिला एलिस जॉर्ज से शादी की और दिल्ली में आ बसे। ब्रिटिश भारतीय सेना में भर्ती हुए और कर्नल के पद तक पहुँचे। विभाजन के वक़्त पद से इस्तीफ़ा देकर लाहौर वापिस गए। वहाँ जाकर इमरोज़ और पाकिस्तान टाइम्स का संपादन किया। 1942 से लेकर 1947 तक वे सेना में थे। लियाकत अली ख़ाँ की सरकार के तख़्तापलट की साजिश रचने के जुर्म में वे 1951 – 1955 तक कैद में रहे। इसके बाद 1962 तक वे लाहोर में पाकिस्तानी कला परिषद् में रहे। 1963 में उन्होंने योरोप, अल्जीरिया तथा मध्यपूर्व का भ्रमण किया और तत्पश्चात 1964 में पकिस्तान वापस लौटे। वो 1958 में स्थापित एशिया-अफ़्रीका लेखक संघ के स्थापक सदस्यों में से एक थे। भारत के साथ 1965 के पाकिस्तान से युद्ध के समय वे वहाँ के सूचना मंत्रालय में कार्यरत थे।

1978 में एशियाई-अफ़्रीकी लेखक संघ के प्रकाशन अध्यक्ष बने और 1982 तक बेरुत (लेबनॉन) में कार्यरत रहे। 1982 में वापस लाहौर लौटे और 20 नवंबर 1984 को लाहौर पंजाब ( पाकिस्तान )में उनका निधन हो गया। उनका आखिरी संग्रह “ग़ुबार-ए-अय्याम” (दिनों की गर्द) मरणोपरांत प्रकाशित हुई।
फैज के बारे में जितना लिखा जाए कम, एक अच्छा शायर फैज हमारे बीच नहीं हैं, बस यही एक गम है।

गणेश कछवाहा …
लेखक, समीक्षक एवं चिंतक
रायगढ़, छत्तीसगढ़।
gp.kachhwaha@gmail.com
94255 72284

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